शायरी...

हम निकले थे सैर करने
दिल में कुछ अरमान थे,
एक तरफ हरियाली थी
एक तरफ शमशान थे|
यूँ ही हम आगे बड़े
उस दबी ह्डी के कुछ बयाँ थे,
ओह!चलते मुसाफिर
जरा संभल कर चल
हम भी कभी इंसान थे
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हमें अपनों ने लूटा
गैरों में कहाँ दम था,
मेरी कश्ती वहाँ डूबी
जहाँ पानी भी कम था|
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हम हैं दरिया
हमें अपना हुनर मालूम है,
जिस तरफ निकल जायेंगे
वहीं रास्ता बना लेंगे
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हैं अँधेरे बहुत तुम सितारे बनो,
डूबतों के लिए तुम किनारे बनो,
इस जमाने में हैं बेसहारा बहुत,
तुम सहारे न लो,बस सहारा बनो|
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हजारों मंजिलें होंगी,
हजारों कारवाँ होंगे,
निगाहें हमको ढुदेंगी
न जाने हम कहाँ होंगे|
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हकीकत छुप नही सकती
बनावट के उसूलों से,
खुशबू आ नही सकती
कभी कागज के फूलों से|
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हो सके तो अपनी खुशियाँ
दर्द के मारों में बाँट दो,
वर्ना जिंदगी का यह कारवाँ
यूँ ही गुजर जायेगा|
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हो मेरे दम से यूँ ही
मेरे वतन की इज्ज़त,
जिस तरह फूल से होती है
चमन की इज्ज़त|
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